सोमैटोफॉर्म डिसऑर्डर क्या है?, What is Somatoform Disorder?

सोमैटोफॉर्म शब्द ग्रीक शब्द ‘ सोमा ’ से लिया गया है जिसका अर्थ होता है मनो: शारीरिक रोग l

सोमैटोफॉर्म डिसऑर्डर उन मनो: रोगों को कहा जाता है जिसमें मुख्यतः शारीरिक लक्षण होते हैं। इस प्रकार के रोगों में किसी भी प्रकार के शारीरिक विकार के न होने के बावज़ूद भी रोगी शारीरिक लक्षण महसूस करता है l रोगी इन्हें गंभीर रोग मानकर चिकित्सा के विभिन्न विभागों के चक्कर लगाते रहते है परन्तु कभी भी ठीक नहीं हो पाते हैं।

इन रोगों में मष्तिष्क और शरीर आपस में सामंजस्य न बिठा पाने के कारण सदा विभिन्न प्रकार के संवेदनाओं का अनुभव करा करते हैं जो शरीर के किसी भी अंग से हो सकती है|

अनेक प्रकार के शारीरिक लक्षण होने बावज़ूद भी बार – बार की जाने वाली जांचो में किसी भी प्रकार के शारीरिक रोग का संकेत नहीं मिलता ।

कई बार तो रोगी स्वयं ही जाँच करता रहता है या चिकित्सक से बार – बार करने की जिद करता है ,इस प्रकार से चिकित्सक स्वयं भी अनिर्णय की स्तिथि में आ जाता है और ऐसी जांच को दोबारा या कई जगहों से कराने के लिए बाध्य हो जाता है l

सोमैटोफॉर्म डिसऑर्डर के वर्गीकरण में मुख्यतः पांच प्रकार के रोग आते हैं क्रमशः

1. सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर

Somatization Disorder

2. कनवर्सन या डिसोसिएटिव डिसऑर्डर

Conversion or Dissociative Disorder

3. हाइपोकान्ड्रीओसिस

Hypochondriasis

4. बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर

Body Dysmorphic Disorder

5. पेन डिसऑर्डर

Pain Disorder


1. SOMATIZATION DISORDER :-

सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर :-

सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर में कई शारीरिक लक्षण एक साथ होते हैं | सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर को शारीरिक जांच और लैब जांच में प्रमाणित नहीं किया जा सकता है अर्थात जांचे समान्य या नॉर्मल आती हैं।

सामान्यतः यह रोग 30 वर्ष की आयु में प्रारंभ हो जाता है जिसमें यह अनेक प्रकार के शारीरिक लक्षणों एवं उनकी विविधता की वजह से ये अन्य सोमैटोफॉर्म डिसऑर्डर से भिन्न होता है।

यह लम्बे समय तक चलने वाला रोग है जिसमे शारीरिक लक्षण बने रहते हैं , इस वजह से रोगी में मानसिक तनाव बना रहता है जो रोगी की सामाजिक व व्यावसायिक कार्यक्षमता पर अत्यधिक प्रभाव डालता है|

पुरुषों की तुलना में यह रोग स्त्रियों में 5-20 गुना तक ज्यादा पाया जाता है। ज्यादातर यह रोग कम शिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में देखा गया है | इस रोग के मूल कारणों का पता सही सही नहीं लगाया जा सका है।

सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर को कैसे पहचाने :

सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर की पहचान के लिए व्यक्ति में चार तरह के लक्षण होने की संभावना रहती है |

शरीर के चार विभिन्न अंगों में दर्द |

दो तरह के पेट से सम्बन्धी विकार जैसे गैस बनना या पेट साफ़ ना होना और पेट से सम्बंधित किसी भी प्रकार के अन्य लक्षण |

एक या दो सेक्स सम्बन्धी लक्षण |

नसों से सम्बंधित लक्षण जैसे हाथ पैरों में सनसनाहट या झनझनाहट होना |

परन्तु इनमे से किसी भी लक्षण की शारीरिक निरीक्षण या अन्य जांचों में पुष्टि नहीं होती|

सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर से ग्रसित रोगी में लम्बे समय से चलने वाली शारीरिक परेशानियां बनी रहती हैं । रोगी लम्बे समय से विभिन्न चिकित्सकों के या संस्थानों के इलाज कराके थक चुका होता है |

इसके अतिरिक्त सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर में लक्षण

कुछ अन्य प्रकार से भी हो सकते हैं:

जैसे बार बार उलटी-उबकाई आना,

निगलने में परेशानी,

हाथ-पैरों में दर्द,

सांस चढ़ना ,

याददाश्त में फर्क,

अधिकतर समय बीमार बने रहना ,

कभी ना ठीक हो पाने की सोच बना लेना ।

इसी तरह इसमें कुछ और विशेस लक्षण भी मिल सकते है जो रोग को बहुत जटिल बना देते हैं वो हैं –

मस्तिष्क तंत्र के विकार जैसे दिखने वाले लक्षण जैसे शरीर पर अनियंत्रण, फालिज , शरीर के भाग में कमजोरी, निगलने में परेशानी, गले में गोला जैसा अहसास, आवाज़ न निकलना, पेशाब बंद होना, दो वस्तुएं दिखना, अंधापन, बहरापन, मिर्गी जैसी गतिविधि। ये लक्षण प्रायः उन लोगों में पाए जाते हैं जिन व्यक्तिओं में अंतर- व्यक्तित्व में सामंजस्य ना रहने के कारण या अपने व्यक्तित्व की कमियों के कारण वे हमेशा तनाव में रहते हैं जैसे छोटी छोटी बातों को बहुत सोचना या आत्मविश्वास में बहुत कमी होना | इस तरह के रोगी अवसाद और घबराहट के लक्षणों से भी घिर जाते हैं। यदि ऐसे रोगी नशा भी करने लगते हैं तो उनमें अवसाद एवं आत्महत्या के विचार देखने को मिल सकते हैं।

रोगी अपनी सम्पूर्ण परेशानियों को नाटकीय रूप से, भावुकता से और अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से पेश करता है। साथ ही रोगी रोग के वर्तमान और पहले से चल रही परेशानियों की तीव्रता को ठीक से नहीं बता पाता और ऐसा प्रतीत होता है की रोगी बहुत लम्बे समय से ही एक रोगों से घिरा एक जीवन जी रहा है |

सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर रोग की प्रकृति :

यह रोग लम्बे समय तक या जीवन भर चलने वाला रोग होता है और दुखदायी होता है। सामान्यतः यह 30 वर्ष की आयु के पहले प्रारंभ हो जाता है।

लक्षणों की तीव्रता और नए लक्षणों की उत्पत्ति लगभग 6-9 महीनों तक चलती है।

कभी कम और कभी तीव्र लक्षणों वाली स्तिथि लगभग 9-12 महीनों तक रह सकती है | कभी कभार ही ऐसा होता है कि रोगी एक साल तक चिकित्सक से परामर्श न ले।

सोमेटाइजेशन डिसऑर्डर रोग का निदान :

इस रोग के बेहतर इलाज की संभावना तब होती है जब रोगी एक मनोचिकित्सक के संपर्क में रहे और उसके मार्गदर्शन पर अमल करे। परामर्श की अवधी सीमित रहे और गैर ज़रूरी जांचों से बचें और अपने रोग और उसके कारण को अच्छी तरह से समझे | इसके अतिरिक्त बीच- बीच में रोगी के अन्य प्रमाणित शारीरिक रोग होने पर उस पर अवश्य ध्यान देना चाहिए और जांच व इलाज चलना चाहिए। 3 डी स्पेक्ट फॉर ह्यूमन बिहेवियर जांच द्वारा इस रोग के मूल कारणों को जाना जा सकता है |

मनोचिकित्सक द्वारा दी गई औषधियां , साइकोथेरेपी और काउंसलिंग इस रोग का आधारभूत इलाज होता है जो लम्बे समय तक चल सकता है।

2. CONVERSION OR DISSOCIATIVE DISORDER :-

कनवर्सन या डिसोसिएटिव डिसऑर्डर अर्थात मानसिक तनाव, अन्संतुष्टता या

उदासी का शारीरिक रोगों में परिवर्तित हो जाना :-

तीव्र मानसिक तनाव की स्तिथि में शरीर के अन्दर कुछ विशेष लक्षण प्रकट हो सकते हैं जैसे

बेहोशी आना,

हाथ पैरों का ऐंठना,

असामान्य व्यवहार ,

या किसी भी प्रकार के अन्य शारीरिक लक्षण जो रोगी के परीक्षण पर वास्तविक ना हो इन्हें कनवर्सन या डिसोसिएटिव लक्षण कहा जाता है |

इस रोग में प्रायः नर्वस सिस्टम एवं शारीरिक रोगों जैसे दिखने वाले लक्षण तो होते हैं लेकिन विस्तार से जांच करने पर ये लक्षण न्यूरोलॉजी या शारीरिक विभाग के विकारों से सम्बंधित नहीं पाए जाते हैं।

शारीरिक रोगों के अतिरिक्त न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर्स से सम्बंधित ये लक्षण निम्न प्रकार से हो सकते हैं जैसे : फालिज, अंधापन, सुन्नपन, गर्दन टेढ़ा होना, मिर्गी जैसी बेहोशी, बोलना बंद होना, गिरना, चाल बदलना, बहरापन, उलटी, गले में गोला महसूस होना, दस्त, पेशाब रुकना, इत्यादि , जोकि वास्तव में रोगी द्वारा केवल प्रदर्शित किये जाते हैं ।

इन व्यक्तियों में रोग के लक्षणों के बने रहने में अपने प्रति सहानुभूति पाना भी एक मुख्य कारण हो सकता है | इस प्रकार के लक्षणों का बने रहना व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भी निर्भर करता है और ऐसे व्यक्तियों में कुछ विलक्षणता होती है जिसे हम हिस्टीरियानिक पर्सनालिटी ट्रेट्स भी कहते हैं |

कनवर्सन या डिसोसिएटिव डिसऑर्डर रोग के कारण :

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसके कई सिद्धांत हैं जैसे मन में चल रहे द्वंदों को प्रगट ना करना, गुस्सा रोकने की कोशिश करना , गुस्सा करने पर नियंत्रण ना रहना , अन्य लोगों को आकर्षित करने की इच्छा , अन्य लोगो से सहानुभूति पाने की लालसा रखना इत्यादि भी कनवर्सन या डिसोसिएटिव डिसऑर्डर का कारण हो सकते है।

वैज्ञानिक कारणों की अभी तक सही सही स्थापना नहीं हो पाई है परन्तु दिमाग के कुछ हिस्सों का कमजोर होना , दिमाग में असामान्य रासायनिक परिवर्तन या मष्तिष्क की संरचना और बनावट में कुछ कमियां इसका मूल कारण है, जोकि आनुवंशिक ,मष्तिष्क पर किसी भी प्रकार का आघात /ब्रेन इन्सल्ट ,ज्वर, सिर की चोट इत्यादि के कारण होने की संभावना रहती है ।

कनवर्सन या डिसोसिएटिव डिसऑर्डर रोग के लक्षण :

कन्वर्शन डिसऑर्डर में फालिज़, अंधापन और अचानक आवाज़ का चला जाना जैसे लक्षण सबसे अधिक प्रस्तुत होते हैं।

सामान्यतः इसमें अत्यधिक क्रोधित होना , बच्चों जैसा व्यवहार और नाटकीय प्रवृत्ति के अतिरिक्त , किसी अन्य व्यक्ति का आत्मा में प्रवेश करना या देवी देवता का व्यक्ति पे आ जाना देखने मिलता है। इसमें अवसाद और घबराहट सम्बन्धी रोग भी साथ-साथ हो सकते हैं। कनवर्सन या डिसोसिएटिव डिसऑर्डर के लक्षणों के प्रस्तुतीकरण में न्यूरोलोजिक विकार और शारीरिक जांच में कुछ भी ऐसा नहीं पाया जाता जिसे रोग की संज्ञा दी जा सके |

पाए जाने वाले लक्षणों में जैसे सुन्नपन, आँखों की रौशनी चली जाना या आवाज़ चले जाने का पैटर्न न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर्स से मेल नहीं खाता| कन्वर्शन डिसऑर्डर में जांचों में दिमागी संरचना के लिए की गई जांचों जैसे सी टी स्कैन और एम् आर आई ब्रेन भी सामान्य मिलता है |

इस रोग के लक्षण असामान्य रूप से घटते बढ़ते रहते है विशेषकर जब उनपर ध्यान दिया जाए। इसी तरह से बेहोशी या चलने जैसे कन्वर्शन रोगों में रोगी गिरता तो है पर गिरने की स्तिथि में उसको चोट नहीं लगती और EMG (एलेक्ट्रोमयोग्राम ) और अन्य सम्बंधित जांचे भी समान्य आती है |

कन्वर्शन डिसऑर्डर रोग का निदान :

मूल रूप से इस रोग का इलाज़ औषधियां नहीं है | परन्तु उलझन घबराहट उदासी या अत्यधिक गुस्से और चिडचिडेपन को रोकने के लिए और मन की स्थिरता के लिए इनका प्रयोग किया जाता है | पूर्ण रूप से निदान के लिए रोगी को इस रोग के बारे में जानकारी देकर और उसे ये बताकर की इस तरह का नाटकीय व्यवहार उसके पुरे जीवन और उसकी तरक्की में बाधक बनेगा, ये सब समझने पर रोगी स्वयं ही रोग के पूर्ण निदान के लिए इक्चुक हो जाता है | इसके लिए Insight Oriented Supportive therapy, Behavior Therapy, और Relaxation Therapy का प्रयोग किया जाता है |

3. HYPOCHONDRIASIS :-

हाइपोकान्ड्रीओसिस :-

हाइपोकान्ड्रीओसिस शब्द प्राचीन मेडिकल शब्द हाइपोकान्ड्रीअम से से लिया गया है जिसका इस रोग में रोगी का मन दो बातों से घिरा रहता है कि उसे कोई घातक रोग हो गया है या उसे विभिन्न प्रकार के रोगों के हो जाने की संभावना है |

रोगी को शरीर के अंगों से ऐसी संवेदनाएं अनुभव होती है की जैसे शरीर के उस अंग में कोई रोग है| ये विचार शरीर में हुई हलचल या उन लक्षणों के कारण महसूस होते है जो मष्तिष्क के कुछ ख़ास हिस्सों से विभिन्न प्रकार की संवेदनाएं उत्पन्न होने के कारण होता है , जिसका कोई चिकित्सीय या वास्तविक शारीरिक रोग आधार नहीं होता है।

मन के इस अन्यथा सोच से घिरे रहने की वजह से रोगी के जीवन के व्यक्तिगत, व्यवसायिक और सामाजिक कार्यक्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वह अन्य ज़रूरी कार्यों को दरकिनार कर हमेशा रोग के बारे में ही सोचता रहता है ।

हाइपोकान्ड्रीओसिस रोग का कारण :

इस रोग में रोगी का मष्तिष्क सामान्य सी होने वाली शारीरिक संवेदना को बढ़ा-चढ़ा हुआ अनुभव करता है। व्यक्ति के पेट में गैस बनने पर उसे पेट में अधिक दबाव या दर्द महसूस होता है | रोगी की नसे शरीर में समान्य प्रतिक्रिया होने पर भी दिमाग को अधिक मात्रा में संवेदनाए पहुँचाने लगती हैं जिससे व्यक्ति को हमेशा शारीरिक रोग होने का आभास बना रहता है।

इस प्रकार से रोगी किसी गंभीर रोग से ग्रसित होने वाली सोच से घिरा रहता है,

जैसे कि रोगी कहेगा मुझे टी० बी० या कैंसर है। समय बीतने के साथ यह सोच पहले वाले रोग से हटकर किसी दूसरे रोग पर भी केन्द्रित हो सकती है जैसे की रोगी पहले एड्स होने की बात करता था और अब कैंसर होने की बार – बार बात करने लगता है ।

बार – बार जांच की रिपोर्ट समान्य आने के बावजूद भी उसकी यह सोच बदल नहीं पाती है और हमेशा उसके दिमाग को घेरे रहती है। चिकित्सक के बार-बार तसल्ली देने के बाद भी रोग होने की संभावना से वो बाहर नहीं निकल पाता |

हाइपोकान्ड्रीओसिस रोग की प्रकृति :

यह रोग एपिसोडिक हो सकता है और बार-बार लौटकर आ सकता है। लक्षणों के बढ़ने और मानसिक तनाव में स्पष्ट सम्बन्ध पाया गया है। अव्यवस्थित जीवनशैली और आस- पास का तनाव भरा वातावरण इस रोग के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है या ठीक न होने के लिए एक संकेत है |

हाइपोकान्ड्रीओसिस रोग का निदान :

मूल रूप से इस रोग का इलाज़ औषधियां नहीं है | परन्तु उलझन घबराहट उदासी या अत्यधिक गुस्से और चिडचिडेपन को रोकने के लिए और मन की स्थिरता के लिए इनका प्रयोग किया जाता है | पूर्ण रूप से निदान के लिए रोगी को इस रोग के बारे में जानकारी देना और इसके बारे में ठीक से समझाना ही इस रोग को ठीक करने का महत्वपूर्ण उपाय है |

4 . BODY DYSMORPHIC DISORDER : –

बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर :-

इस रोग के रोगी लगातार एक ऐसे अहसास से घिरे रहते हैं जिसमे वे अपने समान्य से दिखने वाले शरीर को या शरीर के किसी विशेष अंग को असामान्य , भद्दा, बदसूरत या टेढ़ा मानते हैं। जबकि रोगी को देखने वाले व्यक्तियों को उसके अंगों या शरीर में कोई भी असामान्यता नज़र नहीं आती है।

कभी कभी रोगी ये भी सोचता हैं कि वह दूसरों के लिए आकर्षक नहीं हैं , वो खूबसूरत नहीं है | उसको ये प्रतीत होता है की उसके भद्दे होने के कारण अन्य व्यक्ति उससे बात नहीं करते या कटते हैं। इस बारे में उन्हें बताना ,उसको सांत्वना देना और रोगी की शारीरिक सुन्दरता की प्रशंसा भी ऐसे रोग से ग्रसित लोगों पर कोई असर नहीं करती है।

इस रोग को 15-30 वर्ष की आयु में प्रारंभ होते हुए देखा गया है।

अधिकतर ऐसे मरीज़ त्वचा रोग विशेषज्ञ और प्लास्टिक सर्जन के पास परामर्श लेते हुए पाए जाते हैं। अधिकतर रोगी अपने चेहरे के किसी भाग से चिंतित रहते हैं

जैसे नाक का टेढ़ापन , कान की बनावट या चेहरे के अन्य हिस्सों में कमी | पुरुषों में ज्यादातर शारीरिक पुष्टता एवं शरीर के आकार को लेकर यह रोग देखा गया है।

रोगी को अनावश्यक ही ऐसा लगता है कि लोग उस पर हंस रहे हैं, देख रहे हैं या टिप्पणी कर रहे हैं।

बार-बार आइना देखना या आईने से दूर रहना, मेक-अप से या कपड़े से उस भाग को ढकना और छुपा कर रखना, सामाजिक मिलन से कतराना या ऑफिस के कमरे में बंद होकर रहने जैसा व्यवहार इन रोगियों में देखने को मिल सकता है।

कुछ रोगियों में यह सोच इतनी हावी हो जाती है की वह घर में बंद होकर रह जाते है।

काउन्सलिंग और मनोरोग सम्बंधित दवाइयाँ ही इसमें कारगर होती हैं।

5. PAIN DISORDER :-

पेन डिसऑर्डर :-

इस रोग का मुख्य लक्षण शरीर में सामान्य से कहीं ज्यादा दर्द का अनुभव करना या हमेशा दर्द का अनुभव करते रहना ही प्रमुख रूप से होता है । यह दर्द किसी एक अंग में या एक से अधिक अंगों में हो सकता है जैसे कमर , हाथ पैर , पिंडलियों , मांशपेशियों या पपूरे बदन में दर्द का अनुभव हर समय होते रहना |

ऐसे रोगियों में दर्द का कोई शारीरिक कारण नहीं मिल पाता | इन रोगियों के मस्तिष्क की संरचना में भी कोई कमी नहीं पाई जाती जिसको दर्द का कारण माना जा सके। यह दर्द भावनात्मक चिंता के कारण और विफलताओं के कारण हो सकता है और बाद में रोगी में भावनात्मक चिंताए और कार्यक्षमता में विफलताएं इस रोग के कारण और भी ज्यादा बढ़ जाती है ।

पुरुषों की तुलना में यह रोग महिलाओं में दोगुना होता है और अधिकतर यह रोग 40-50 वर्ष की आयु में प्रारंभ होता है।

यह रोग ब्लू कॉलर व्यवसाय (शारीरिक श्रम, विनिर्माण, खनन, साफ-सफाई, तेल क्षेत्र का काम, निर्माण, यांत्रिक रखरखाव, भंडारण, अग्निशमन) से जुड़े लोगो में या शारीरिक काम में रूचि न रखने वाली स्त्रियों को होता है l पेन डिसऑर्डर के रोगियों में दर्द एक सामूहिक रूप से ना होकर अलग-अलग अंगों में दिखाई पड़ता है , जैसे : कमर दर्द, सर दर्द, चेहरे का दर्द, कूल्हे का दर्द, इत्यादि।

सामान्यतः यह रोगी एक लम्बे समय से शारीरिक परीक्षणों और सर्जिकल परीक्षणों से जुड़े पाए जाते है | वे कई चिकित्सक बदलते हैं और आग्रह करते हैं ज्यादा दवाइयों की और शल्य चिकित्सा की भी। कभी – कभी वे अपनी ज़िन्दगी की विपत्तियों के लिए इस दर्द को दोषी ठहराते हैं परन्तु अधिकतर रोगी मानसिक तनाव के होने को मना करते हैं और अपनी ज़िन्दगी को खुशहाल बताते हैं सिवाय दर्द बने रहने के ।

अक्सर यह रोग अचानक से प्रारंभ होता है और कुछ ही हफ़्तों में तीव्र हो जाता है। जिन रोगियों में मानसिक तनाव का पता नहीं चलता , नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति, न्यायायिक प्रक्रिया में लिप्त व्यक्ति, आर्थिक संकट से जूझ रहे व्यक्ति या नशा लेने वाले व्यक्तियों में इस रोग के ठीक होने की सम्भावना कम हो जाती है।

काउन्सलिंग और मनोरोग सम्बंधित दवाइयाँ ही इसमें कारगर होती हैं। और ये पूरी तरह से मनोचिकित्सक की देख रेख में संभव है |

ओमनी केयर हैल्थ हाउस मैं आकर आप निदान पाने के उपायों को जाने या किसी भी मनो: चिकित्सक से परामर्श ले l

By: Dr R.K. Thukral

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